रिंगाल से बनाई गयी वस्तुएं दिला रही है नई पहचान ,आज जाना रहा है रिंगाल मेन के नाम से ।।

कम लागत से ही बना देते घर की सजावट का सामान ।

देश व विदेश के कोने कोने में बसे प्रवासी मांगते है रिंगाल से बने टोकरी व किचन में काम आने वाला सामान ।

चमोली ।जनपद चमोली के पीपलकोटी के रहने वाले राजेन्द्र ने रिंगाल से विभिन्न प्रकार की वस्तुओं को बना कर अपनी पहचान व आजीविका का मुख्य साधन बनाया हुआ है ।इनकी रिंगाल से बनी घरेलू उपयोगी वस्तुए देख कर हर कोई इन्हें रिंगाल मेन से जानने लगा है ।राजेन्द्र कहते है ये इनका पुश्तेनी कार्य है जिससे हम लोग पीढ़ी दर पीढ़ी करते आ रहे हैं।पहले हमारे लोग ग्रामीण क्षेत्रो में सामान्य उपयोग में आने वाले कंडी ,टोकरे ,बड़ा डोल ,सेर, पाथा सोलटा ,तेथला तक ही सीमित रह पाते थे ।लेकिन वर्तमान समय मे रिंगाल का परीक्षण ले कर अन्य उपयोगी वस्तुए बनाने में सक्षम है ।

रिंगाल मेन राजेन्द्र नें उक्त कहावत को चरितार्थ करके दिखाया है। राजेन्द्र नें अपनी बेजोड हस्तशिल्प कला से रिंगाल के विभिन्न उत्पादों और पहाड़ की हस्तशिल्प कला को नयी पहचान और नयी ऊंचाई प्रदान की है। चमोली, देहरादून से लेकर मुंबई तक रिंगाल मेन राजेन्द्र बडवाल के बनाये गये उत्पादों के हर कोई मुरीद हैं। बीते एक सप्ताह से राजेन्द्र नें रिंगाल से उत्तराखंड के पारम्परिक वाद्य यंत्र ढोल दमाऊ बनाकर एक नया अभिनव प्रयोग करके अपने हुनर का लोहा मनाया है। रिंगाल मेन राजेन्द्र बडवाल कहते हैं की के उनकी कोशिश है कि रिंगाल के ढोल दमाऊ के जरिए वो ढोल के कलाकारों के कंधो का बोझ हल्का कर सके। ये एक छोटी सी कोशिश है, अगर लोगो को ये पसंद आयेगा तभी कुछ संभव होगा। रिंगाल के इस ढोल का वजन पारम्परिक ढोल दमाऊ की तुलना में बेहद कम हैं।

सदियों से ढोल दमाऊं हमारी सांस्कृतिक विरासत की पहचान है। इसके बिना हमारे लोकजीवन का कोई भी शुभ कार्य, उत्सव, त्यौहार पूर्ण नहीं हो सकता है। ढोल दमाऊं हर्ष, उल्लास और ख़ुशी का प्रतीक है। यह उत्तराखंडी संस्कृति का संवाहक व सामाजिक समरसता का अग्रदूत है। ढोल से 600 से 1000 तक ताल निकलते हैं। जबकि तबले पर 300 ही बजते हैं। पहाड़ में आयोजित होने वाले हर छोटे बड़े आयोजनों, वैवाहिक कार्यक्रमों, पांडव नृत्य, बगडवाल नृत्य, विभिन्न धार्मिक आयोजनों में ढोल की उपस्थिति आवश्यक होती है। ढोल हमारी लोकसंस्कृति का अहम् हिस्सा है। ढोल हमारे लोक जीवन में इस कदर रचा बसा है की इसके बिना शुभ कार्य की कल्पना तक नहीं की जा सकती है। जहाँ लोग विदेशों से ढोल सागर सीखने उत्तराखंड आ रहें है वहीँ हम अपनी इस पौराणिक विरासत को खोते जा रहे हैं। ऐसे में हमें इसके संरक्षण और संवर्धन के लिए आगे आना होगा।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here