दलदल में दफन अपनों की याद में आज तक सिसक रहे परिवार ।

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रिपोर्ट। सोनू उनियाल
जोशीमठ ।।उत्तराखंड और खासकर प्रदेश के पहाड़ी इलाकों में दैवीय आपदाओं का आना कोई नई बात नहीं है। यह सुंदर दिखने वाली पहाड़ियां और कलकल करती नदियां कब विकराल हो जाए इसका अंदाजा कोई नहीं लगा सकता। अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए पहचाने जाने वाले उत्तराखंड के पहाड़ी इलाके अक्सर दैवीय आपदाओं से झुलसते रहते हैं।

यहां प्रकृति कभी भी विकराल रूप धारण कर सैकड़ों हंसती खेलती जिंदगीयों को निगल लेती है। प्रकृति का विकराल रूप कुछ समय बाद शांत हो जाता है। आपदाएं थम जाती है। पर इन आपदाओं के गहरे जख्म इस प्रदेश की छाती पर ज्यों के त्यों बने रहते हैं। और बार-बार यहां रहने वाले लोगों को ज़हन कपकपा देने वाली इन आपदाओं की याद दिलाते रहते हैं।

ऐसा ही एक काला दिन आज से 2 साल पहले उत्तराखंड के इतिहास के साथ जुड़ गया था। प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्र रैणी में 7 फरवरी सन 2021 को एक डरावना भूचाल आया और सैकड़ों जिंदगियों को अपने आप में समा ले गया।

 

इस दिन रैणी में दिन की गुनगुनी धूप के बीच एक डरा देने वाली आवाज हुई थोड़ी देर बाद देखा तो मलबे और पत्थर का सैलाब बह रहा था। दरअसल 7 फरवरी 2021 रविवार के दिन रैणी के ऊपर की पहाड़ी से एक हिमखंड टूट कर वहां बनी एक प्राकृतिक झील में जा गिरा हिमखंड के झील में गिरने से पानी का जलजला उफन पड़ा और बहते बहते सैकड़ों जिंदगियों को अपने साथ बहा ले गया।

त्रासदी इतनी भयावह थी कि पिछले 1 से डेढ़ साल तक मृतकों के मृत शरीर वहां जमे मलबे से निकलते रहे। और अपनों को याद कर रहे परिवार अपनों के आने के इंतजार में सिसकते रहे। यह भयावह त्रासदी उस ही गांव में आई थी जिस गांव की मिसाल हर पर्यावरणविद देता है। जिस गांव को पर्यावरण प्रेमियों की भूमि कहा जाता है। और जिस गांव में गौरा देवी जन्मी थी वह गौरा देवी जिस गौरा देवी ने पूरे विश्व को चिपको आंदोलन के जरिए पर्यावरण बचाने का संदेश दिया था।

यह त्रासदी उस गौरा देवी की धरती को डूबा ले गई जिस गौरा देवी ने इस धरती के पेड़ों को बचाने के लिए अपनी जान कुर्बान करने की ताल ठोक दी थी। गौरा देवी अपनी सहेलियों के साथ रैणी के जंगलों में पेड़ों पर चिपक गई थी। और ताल ठोकी थी कि पेड़ तब कटेंगे जब वह और उनकी सहेलियां अपने शीश कटवा देंगी।इस पावन धरती पर आई इस त्रासदी में अपनों को खो बैठे लोग आज तक सिसकते हैं। रैणी में रहने वाले कुछ लोग बताते हैं, कि जब भी बारिश की तेज आवाज होती है। तो उनके जहन में एक डर बैठ जाता है। और उसी भूचाल की तस्वीरें सामने आती है जो भूचाल वह 2 साल पहले झेल चुके हैं।

यह आपदा इतनी भयावह थी कि इस आपदा में कई लोगों के आशियाने डूब गए तो कई आसियानो के मालिक ही नहीं बचे। यह रविवार के दिन वाली 7 फरवरी आज भी हर एक उत्तराखंडी के जहन में काले दिन के रूप में बसती है। हर कोई यही मिन्नते करता है कि ऐसी 7 फरवरी कभी फिर उत्तराखंड के इतिहास में ना लौटे यह ऐसा काला दिन था कि इस दिन पूरे क्षेत्र में कई लोगों के घर में चूल्हे नहीं जले।

पूरे गांव में मातम छा गया था रोने चीखने चिल्लाने के अलावा कुछ सुनाई नहीं दे रहा था और देखने के लिए यदि कुछ था तो वह था बहता सैलाब और लाशों का ढेर। इस दिन को कोई भी उत्तराखंडी ना तो याद करना चाहता है और ना ही दोबारा देखना चाहता है। रैणी में आए इस जलजले के बाद लगभग 1 साल तक नदियों का रंग मटमैला रहा।

यह मलवा यहां से कई किलोमीटर नीचे तक नदियों के जरिए वह कर गया कई लोगों के शव कर्णप्रयाग के आगे से बरामद किए गए। बताया जाता है, कि कई लोगों के शव हरिद्वार ऋषिकेश तक भी बहकर पहुंच गए थे।इस आपदा में मृत अवस्था को प्राप्त हुए लोगों का संस्कार उनके परिवार जन सही ढंग से नहीं करवा सके क्योंकि किसी शव का हाथ तो किसी शव का सर मिलता था शवों की हालत इतनी खराब हो गई थी। उनको पहचानना मुश्किल था। इतनी भयावह आपदा का दंश झेल चुके क्षेत्र के लोग अब इस काले दिन को याद नहीं करना चाहते।

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