आज उत्तराखण्ड के गांवों में भेलौ खेलकर मनाएंगे इगास के पर्व को ।

अलग-अलग मान्यताओं का प्रतीक है यह भव्य त्यौहार
घरों में कोठारों में नया अनाज भरने का होता दिन
बीते वर्षों से इगास के प्रति बढ़ा उत्साह

रुद्रप्रयाग। देवभूमि उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र के गांवों में घरों के आंगन और खेत-खलियानों में भैलो खेलने के पर्व को ही इगास बग्वाल कहा जाता है। दीपावली के ग्यारह दिन बाद यह पौराणिक पर्व मनाया जाता है। इस दिन का आकर्षण पारंपरिक भैलो होता है। साथ ही लोग अपने घरों को दिए से सजाते हैं। इस दिन को घरों में कोठार (अनाज रखने के ‌लिए लकड़ी का वर्तन) में नया अनाज भी भरा जाता है। रुद्रप्रयाग जनपद के बच्छणस्यूं, रानीगढ़, धनपुर, तल्लानागपुर सहित जखोली ब्लॉक के भरदार क्षेत्र और ऊखीमठ ब्लॉक के केदारघाटी के गांवों में इगास का पर्व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इस दिन गांवों में पशुपालक अपने घरों में दूध और दही रखने के लिए नए वर्तन भी रखते हैं। साथ ही विशेष रूप से दही को मथकर मक्खन निकाला जाता है। इगास कई प्राचीन परंपराओं से भी जुड़ी है। इस दिन रक्षाबंधन के पर्व पर बहिनों द्वारा अपने भाईयों की कलाई पर बांधी गई रखी को निकालकर गाय की पूंछ पर बांधने की परंपरा भी है। इसे हरिबोधनी एकादशी के रूप में भी मनाया जाता है। इगास के दिन गांवों में पशुपालक अपने पशुओं की पूजा-अर्चना कर तिलक लगाकर उन्हें पींडा (चावल व झंगोरा से बना पौष्टिक आहार) खिलाते हैं। इसके अलावा इगास के दिन गढ़वाल के कई गांवों में बर्त खींचने की परंपरा भी है। बर्त का अर्थ मोटी रस्सी है, जो बबूल, बबेडू या उलेंडू के घास से बनाई जाती है। लोक परंपराओं व किवदंतियों के तहत बर्त खींचने को समुद्र मंथन और बर्त को वासुकी नाग का प्रतीक माना जाता है।

क्या है इगास बग्वाल रुद्रप्रयाग।

उत्तराखंड के गढ़वाल परिक्षेत्र में चार बग्वाल मनाई जाती हैं। पहली बग्वाल कार्तिक माह में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी और दूसरी अमावश्या को मनाई जाती है। यह पर्व दीपावली के रूप में पूरे देश में मनाया जाता है। गढ़वाल में तीसरी बग्वाल, बड़ी बग्वाल से ठीक 11 दिन बाद कार्तिक माह की शुल्क पक्ष की एकादशी को मनाई जाती है, जिसे इगास कहा जाता है। गढ़वाली में एकादशी को इगास कहा जाता है, इसलिए इसे इगास बग्वाल भी कहते हैं। इसके अलावा बड़ी दीपावली के ठीक एक माह बाद मार्गर्शीष माह की अमावश्वा को मनाई जाने वाली बग्वाल को रिख बग्वाल कहते हैं। यह गढ़वाल के जौनपुर, थौलधार, प्रतानगर, रंवाई, चमियाला और जौनसारी में मनाई जाती है।

इगास पर्व को लेकर लोक परंपराएं
रुद्रप्रयाग। मान्यतानुसार भगवान श्रीराम राम के 14 वर्ष के वनवास से अयोध्या लौटने की सूचना गढ़वाल क्षेत्र के लोगों को 11 दिन बाद मिली थी, इसलिए यहां ग्यारह दिन बाद दिपावली मनाई जाती है। रिख बग्वाल को लेकर भी यही मान्यता है कि वहां के लोगों को श्रीराम के अयोध्या लौटने की सूचना एक माह बाद मिली थी। गढ़वाल में इगास को लेकर एक अन्य मान्यता यह भी है कि दिवाली के समय टिहरी गढ़वाल राजा के वीर योद्घा वीर भड माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में सेना ने दापाघाट, तिब्बत का युद्ध जीतकर विजय प्राप्त की थी और दिवाली के ठीक ग्यारहवें दिन वह अपने घर पहुंचे थे। युद्ध जीतने और सैनिकों के घर पहुंचने की खुशी में उस समय दिवाली मनाई थी।

इगास को लेकर धार्मिक मान्यता
रुद्रप्रयाग। ईगास बग्वाल की एकादशी को देव प्रबोधनी एकादशी भी कहा गया है। इसे ग्यारस का त्यौहार और देवउठनी ग्यारस या देवउठनी एकादशी के नाम से भी जानते हैं। मान्यता है कि शंखासुर नाम का एक राक्षस था। उसका तीनो लोकों में आतंक था। देवतागण उसके भय से विष्णु के पास गए और मुक्ति पाने के लिए प्रार्थना की। विष्णु ने शंखासुर से युद्ध किया। युद्ध लंबे समय तक चला और भगवान विष्णु ने शंखासुर को मार दिया। इस युद्घ में भगवान विष्णु काफी थक गए थे और क्षीर सागर में चार माह के शयन के बाद कार्तिक शुक्ल की एकादशी तिथि को नींद से जागे। इस अवसर पर देवताओं ने भगवान विष्णु की पूजा-अर्चना की और इसे देवउठनी एकादशी कहा गया।

क्या होता है भैलो

रुद्रप्रयाग। इगास के दिन भैलो खेलने का विशेष रिवाज है। गांवों में चीड़, भीमल, देवदार और हींसर की लकड़ी से भैलो बनाते हैं। इन लकड़ियों के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक साथ रस्सी अथवा जंगली बेलों से बांधा जाता है। फिर इसे जला कर घुमाते हैं। इसे ही भैला खेलना कहा जाता है। परम्परानुसार बग्वाल से कई दिन पहले गांव के लोग लकड़ी की दली, छिला, लेने ढोल-बाजों के साथ जंगल जाते हैं। जंगल से दली, छिल्ला, सुरमाड़ी, मालू अथवा दूसरी बेलें, जो कि भैलो को बांधने के काम आती है, इन सभी चीजों को गांव के पंचायती चौक में एकत्र करते हैं। सुरमाड़ी, मालू की बेलां अथवा बाबला, स्येलू से बनी रस्सियों से दली और छिलो को बांध कर भैला बनाया जाता है। जनसमूह सार्वजनिक स्थान या पास के समतल खेतां में एकत्रित होकर ढोल-दमाऊं के साथ नाचते और भैला खेलते हैं। भैलो खेलते हुए अनेक मुद्राएं बनाई जाती हैं, नृत्य किया जाता है और तरह-तरह के करतब दिखाये जाते हैं। इसे भैलो नृत्य कहा जाता है।

भैलो गीत
सुख करी भैलो, धर्म को द्वारी, भैलोधर्म की खोली, भैलो जै-जस करीसूना का संगाड़ भैलो, रूपा को द्वार दे भैलोखरक दे गौड़ी-भैंस्यों को, भैलो, खोड़ दे बाखर्यों को, भैलोहर्रों-तर्यों करी, भैलो।
इस अवसर पर कई प्रकार की लोककलाओं की प्रस्तुतियां भी होती हैं। क्षेत्रों और गांवों के अनुसार इसमें विविधता होती है। सामान्य रूप से लोकनृत्य, मंडाण, चांचड़ी-थड़्या लगाते, गीत गाते, दीप जलाते और आतिशबाजी करते हैं। कई क्षे़त्रों में उत्सव स्थल पर कद्दू, काखड़ी मुंगरी को एकत्र करने की परम्परा भी है। फिर एक व्यक्ति पर भीम अवतरित होता है। वो इसे ग्रहण करता है। कुछ क्षेत्रों में बग्ड्वाल-पाण्डव नृत्य की लघु प्रस्तुतियां भी आयोजित होती हैं।

 

इनका कहना है —डॉ. नंद किशोर हटवाल, लोकसंस्कृति कर्मी और वरिष्ठ साहित्यकार।
आधुनिक विकास की चकाचौंध में मूलभूत सुविधाओं से वंचित गांवों से होते पलायन से पहाड़ की कई परंपराएं हाशिए पर सिमट गईं हैं, जिसमें इगास का पर्व भी शामिल है। लेकिन पिछले दो-तीन वर्षों से इगास के प्रति शासन स्तर पर जागरूकता दिखाई गई है, जो शुभ संकेत है। समय आ गया है कि हमें अपने पारम्परिक त्यौहारों के संरक्षण और संवर्धन के लिए एकजुट होकर आने आना होगा। अन्यथा हम अपनी इस अनमोल सांस्कृतिक विरासत को खो देंगे। इनको सहेजने की नितांत आवश्यकता है।

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